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सच और झूठ के बीच कोई तीसरी चीज नहीं होती और मैं सच के साथ हूं : छत्रपति       www.poorasach.com      

Tuesday 22 November 2011

बुझ नहीं पाते ऐसी मंजि़लों के चराग

डा. राजकुमार निजात

पत्रकारिता का जन्म इस चुनौती के साथ हुआ था कि लोगों तक वह सच्चाई नहीं पहुंच पा रही है जो घटी है और जिसे जानने का उनका अधिकार है। जब लोग राजनीति से बेखबर हो जते हैं तो राजनीति निरंकुश होने लगती है। राजनीति के खिलाड़ी अपनी मनमानी करने लगते हैं और सच्चाई की  इन घटनाओं का लोगों तक पहुंचना बेहद जरूरी होता है। पत्रकारिता इसी चुनौती का नाम है। अपने आरंभ से लेकर वर्तमान तक सदियों की इस यात्रा के बाद भी पत्रकारिता में आज भी वही चुनौती कायम है। रामचन्द्र छत्रपति ने पत्रकारिता को अपनाया था। जो मुखर और शिखर के पत्रकार हैं, उनका जीवन इस प्रकार की चुनौतियों से भरा पड़ा है। छत्रपति ने अपने युवा जीवन को पत्रकारिता के लिए इसलिए समर्पित कर दिया था क्योंकि वह पत्रकारिता के माध्यम से समाज और लोगों के बीच में एक कड़ी की भूमिका निभाना चाहता था। वह चाहता था कि लोग निर्भीकता से प्रेरित होकर पत्रकारिता को एक मिशन समझकर इसमें आएं और इसकी सेवा करें।

इस उद्देश्य को पाने के लिए छत्रपति किसी भी संघर्ष के रास्ते पर चलने के लिए तैयार था। उन्होंने यह तय कर लिया था कि चुनौती की यह कठिन राह वे हौसलों के साथ तय करेंगे। उन्होंने इसकी बगारीकियों को समझने के लिए स्थानीय अखबारों को अपना गुरू बनाया। लोकल अखबारों के भीतरी जीवन में उतरकर उन्होंने पत्रकारिता की आवश्यकताओं को जानने का प्रयास भी किया और इसे समझा भी। अपनी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए उन्होंने इस मिशन के एक बहुत ही साधारण कार्यकर्ता के रूप में कार्य शुरू किया। जब वे इनकी विशेषताओं, वास्तविकताओं, आवश्यकताओं और संभावनाओं से परिचित हो गए तो उन्होंने इसे सच का प्रतीक मानते हुए यह निर्णय लिया कि वे इस मिशन को अकेले ही चलाएंगे। और इस प्रकार 'पूरा सच' का श्रीगणेश उन्होंने कर ही डाला। अखबार के इसी नाम के अनुरूप उनकी कार्यशैली और इसकी कार्यप्रणाली थी। उस समय जब बहुत से सांध्य दैनिक लम्बे समय से अभी चलना ही सीख रहे थे, 'पूरा सच' ने बहुत ही अल्प समय में पत्रकारिता को बड़ी मजबूत पारदर्शिता के साथ स्थापित कर लिया था।
पत्रकारिता और अखबार के प्रति छत्रपति का यह समर्पण भाव ही था कि इस क्षेत्र में पहली बार एक छोटे-से स्थानीय अखबार ने समस्त लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। आकार में, क्लेवर और प्रकाशन में बेशक यह छोटा था लेकिन सच की कलम इसके साथ थी, जिसे इसने बड़ा बना दिया। छत्रपति ने मुझ पर, मेरी कलम पर विश्वास करते हुए मुझे एक जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा था कि 'निजात मुझे आपसे खरा सहयोग चाहिए।' तब चुनाव के समय में एक व्यंग्यात्मक स्तंभ ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। यह संभवत: छत्रपति का ही प्रभाव था कि मैं जैसे भी हो, उस व्यंग्यात्मक स्तंभ के लिए मैटर चंडीगढ़ से उन्हें उपलब्ध करवाता था। साहित्य और पत्रकारिता के प्रति उनका समर्पण भाव कमाल का था।
'पूरा सच' ने 'देखन में छोटे लगे और घाव करे गंभीर' वाली कहावत को बखूबी चरितार्थ किया। देखते ही देखते अपनी सच्चाई और खरी निर्भीकता के कारण यह अखबार छा गया। लोग इसका बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे। स्टाल पर एक सांध्य दैनिक के रूप में राष्ट्रीय समाचार पत्रों की तरह बिकने वाला यह एक लोकप्रिय अखबार हो गया। इसकी कड़वी सच्चाई ने कुछ लोगों को अपना प्रतिवादी बना लिया। सच्चाई जब ज्यादा मुखर हुई तो सहनशीलता को भेद गई। और एक दिन पत्रकारिता के इतिहास में इस सच्चाई ने, इस निर्भीक और महान पत्रकार का जीवन मांग लिया।
रामचंद्र छत्रपति ने सच्चाई और मूल्यों के साथ कभी समझौता नहीं किया। संभवत: वे इसका परिणाम जानते भी थे। वे मानते थे कि मुझे मारा जा सकता है, लेकिन सच्चाई को दबाया नहीं जा सकता। 21 नवम्बर 2002 का वह दिन बहुत मनहूस दिन था जब पत्रकारिता के इस महाबली को अपना मिशन अधूरा छोड़कर हमसे शारीरिक रूप से अलग होना पड़ा। वे चले गए लेकिन सच्चाई का एक निरंतर कारवां खड़ा करके गए जो आज भी उसी भावना  व रफ्तार के साथ जारी है। उनका बलिदान सारे विश्व में, सारे पत्रकारिता जगत में आज भी सच्ची और निर्भीक पत्रकारिता की एक अनूठी मिसाल है। उनका बलिदान आज भी उन ताकतों के लिए सबक है जो पत्रकारिता को अपने हितों की खातिर प्रयोग करना चाहते हैं। वे ताकतें दुनिया में कहीं भी हों, कभी सच्ची पत्रकारिता को दबा पाने में सफल नहीं हो सकतीं। छत्रपति को शत्-शत् नमन्।
दास्तां तेरी तेरे हौसले बताते हैं,
आज भी लोग तेरा नाम गुनगुनाते हैं।
बुझ नहीं पाते कभी ऐसी मंजि़लों के चराग
लोग जो बाती अपने खून से जलाते हैं।।  

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