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सच और झूठ के बीच कोई तीसरी चीज नहीं होती और मैं सच के साथ हूं : छत्रपति       www.poorasach.com      

Monday 5 September 2011

सब्जी गुरु जी के हाथ की

वीरेन्द्र भाटिया
    एक तौरी 60 हजार रूपए की । एक मिर्च 600 रूपए की। एक करेला 4000 रूपए का। एक अंगूर की पेटी 25 लाख रूपए की और एक कद्दु 80 हजार रूपए का। पंजाब केसरी में इस तरह के आश्चर्यजनक सत्य हम अक्सर पढ़ते हैं जो अक्सर हमारे देश के नहीं होते। और जब हम पढ़ते हैं तो हमारी पहली टिप्पणी यही होती है कि बाहर के लोग मैंटल काम ज्यादा करते हैं। पागल हैं साले। इस देश में ऐसी घटना सुनने को मिले तो टिप्पणी होती है कि लोगों के पास काला धन है भाई, कहीं तो लगाना ही है, लेकिन 4000 रूपए का करेला लेने का तो फि र भी कोई तुक नहीं बनता यार। और लोग ऑफि स में ऐसी खबरों पर अच्छा खासा गॉसिप खड़ा कर लेते हंै। लेकिन ऐसी कोई खबर या पूरी की पूरी यही खबर आपके अपने शहर की हो तो आपकी टिप्पणी क्या होगी। भई टिप्पणी कुछ भी करना लेकिन जरा सोच समझ कर। क्योंकि यह एक ऐसे मठ की रोज की घटना है जो अब खबर नहीं रह गई है। मठ का नाम मैं ले नहीं सकता क्योंकि असंवैधानिक कार्यों में संलग्न लोग संविधान की आजकल बड़ी दुहाई देने लगे हैं और नोटिस भेजते टाईम नहीं लगाते। आप से भी इसीलिए कहा है कि गॉसिप बनाना भी चाहें तो मठ को मठ ही रहने दें। उसके आगे ना बढें़।
    मेरे कुछ परिचितों ने इस भाव सब्जियां खरीदी हंै। सार्वजनिक रूप से वे इस बात का खंडन करते हंै लेकिन व्यक्तिगत चर्चा में वे इसे अपनी उपलब्धि बताते हंै कि उन्होंने बोली में से कद्दू लिया है। वहां कद्दू किलो और वजन के हिसाब से उपलब्ध नहीं हैं वरन संख्या में मिलते हंै। मिर्च, करेला और तौरी भी संख्या में बोली से छूटती है और आप हैरान ना होना यदि आपको सुनने को मिले की एक तौरी 60 हजार की, एक करेला 4000 का और एक मिर्च 600 रूपए की मिली है। एक अंगूर की पेटी 25 लाख की और इस हिसाब से एक अंगूर तीन सौ रूपए का। अंगूर खरीदने और उसे आगे बेचने की कहानी फि र किसी दिन अभी तो उन लोगों के अनुभव सुन लीजिए जिन्होंने इस भाव सब्जियां खरीदी हैं और उन्हें पछतावा नहीं बल्कि फ ख्र है। और बेचने वाला इसलिए निश्ंिचत है कि लोगों में अभी विरोध नहीं बल्कि क्रेज है। आप उनके अनुभव सुन लेंगे तो निश्चित ही वही टिप्पणी करेंगे जो आप विदेशी लोगों के बारे में ऊपर कर चुके हंै।
    अनुभव बखान करते हैं कि ये सब्जी गुरू जी ने अपने हाथों से मेहनत करके खेत में उपजाई है। इस सब्जी को खाने से बीमारी नहीं लगती, ईश्वर से सम्बन्ध जल्दी जुड़ता है और इंसान जीवन-मरण के चक्करों से मुक्त हो जाता है और उसकी आत्मा का सीधे सचखंड में प्रवेश सुनिश्चित हो जाता है। भई गुरू के हाथ मेे ऐसा यश भूतो ना भविष्यत: कभी सुना नहीं गया, संभव है कभी सुना भी ना जाए। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यह मठ बाणी की शिक्षा के प्रचार का दावा करता है और बाणी इस वक्त तक देश के तमाम धर्मो में सबसे प्रोग्रेसिव और अंधविश्वास से रहित ज्ञान से लबरेज़ है। यदि सब्जी खाने से उम्र भर के स्वास्थ्य की गारंटी हो जाती है और मरने के बाद सचखंड में स्थान पक्का हो जाने का जुगाड़ हो जाता है तो निश्चित है कि यह मठ अपने ही वचनों और बाणी के मूल नियम की धज्जियां तो उड़ा ही रहा है बल्कि भोले भाले लोगों का दोहरा शोषण भी कर रहा है। बेशक मठ के लोग कहें कि यह पैसा धर्म के कार्यों के लिए इक_ा किया जा रहा है और लोग वैसे भी दान देते ही हंै उसके बदले गुरू जी के हाथ की सब्जियांं ले लेते हैं। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इस प्रकार के लुभावने दुष्प्रचार में गरीब लोग भी फं स रहे हैं जो लगातार गरीबी, बीमारी और दुनियावी दिक्कतों से आजिज़ हैं। यह भी तय है कि इस मठ में वे बरसों से आ रहे हैं और अपने दुखड़ों की गठरी का वजन बढ़ाए जा रहे हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि हजारों की कीमत की यह सब्जी शायद उनके दुखों का अंत कर दे। दूसरा यह पैसा धर्म के कार्यों में ही लगाया जा रहा है यह सिर्फ  प्रचार है, इसका हिसाब और लेखा कभी सार्वजनिक नहीं किया जाता। हां जो चीज सार्वजनिक रूप से लोगों को विदित है वह ये है कि मठ में लोगों का आना कम हो गया है। दान दक्षिणा कम आने लगी है और कोर्ट कचहरी के चक्कर ज्यादा लगने से धन की जरूरत ज्यादा आन पड़ी है। अब कोर्ट कचहरी के बारे में तो आम धारणा लोगों की है ही कि यहां तो वह आए जिसकी जेब सोने की और पैर लोहे के हों। तो मठों की जेबें तो सोने की ही होती हैं और पैर तो एक नहीं बहुत से हैं इनके पास। केस का फि र भी निश्चित नहीं कि पक्ष में ही सुलटे।
    विश्वास और अंधविश्वास पर एक सार्थक बहस की आवश्यकता है जिसमें कामरेड लोग ना हों। बल्कि धर्म के जानकार लोग ही यह बताएं कि उपरोक्त सभी प्रकार के कृत्य किस श्रेणी में आते हंै। एक बड़ी बहस की आवश्यकता इस विषय पर भी होनी चाहिए कि इस प्रकार से लूटने पर कोई कार्यवाही का भी विधान होना चाहिए या नहीं। घर का एक सदस्य  महंगी सब्जी उठा लाता है। बाकी सदस्य उसके पक्ष में नहीं हंै। पूरे परिवार को मानसिक वेदना से गुजारने पर किसी प्रकार का दंड है कि नहीं। और इस तरह पैसे इक्कठे करने पर समाज का दृष्टिकोण क्या है।
    खुद गुरू जी का दृष्टिकोण क्या है यदि अपने अखबार में एक विज्ञप्ति के माध्यम से स्पष्ट करें तो पूरा समाज आपके इस सद्कृत्य का आभारी रहेगा।

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