वीरेन्द्र भाटिया
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एक अखबार के दो ही मुख्य कार्य होते हैं। या यू कहें कि दो मुख्य उत्तरदायित्व हैं जिससे एक अखबार को मुकम्मल अखबार कहा जा सकता है। एक है समाचार और सूचनाओं को शुद्धता और संपूर्णता के साथ अपने पाठकों तक पहुंचाना। और दूसरा है समाज के उन दोगले चरित्र लोगों का सच पाठकों के सामने लाना जो दुनिया में दोहरे चरित्र के कारण बरगलाने के काम में संलग्न हैं। अपने आस-पास के परिवेश में आप अमूमन किसी भी अखबार को इन दो मापदंडों पर खरा उतरता हुआ नहीं देखते। संभव भी प्रतीत नहीं होता। बहुत हद तक स्वयं को बहुत संयमित रखने की दरकार होती है। उदारीकरण के जमाने में संयम शब्द वैसे भी अर्थहीन मालूम पड़ता है आज की पीढ़ी को। स्वयं उन लोगों ने भी संयम शब्द से कोई नाता नहीं रखा जिनका काम संयम से शुरू होता है, जिनका काम है देह से रूह तक की यात्रा से लोगों को परिचित करवाना। वह आध्यात्मिक गुरू खुद देहभोग और देहसंहार की तारीखें भुगत रहा है तो संयम की उम्मीद आम आदमी और किसी अखबार के संपादक से क्यूं की जाए। कौन पत्रकार नहीं जानता कि अमुक व्यक्ति दोहरे चरित्र का खेल खेलता है। पत्रकार की पैनी नजर आज पहले से भी ज्यादा पैनी है। उसके पास पहले से ज्यादा तेज माध्यम हैं। लेकिन कर्तव्य के आगे सीमा रेखाएं और व्यावसायिक मजबूरियों की सूची डाल दी गई है। जिस व्यक्ति का चरित्र उघाडऩे की जरूरत होती है उन्हीं व्यक्तियों के विज्ञापन अखबार के पहले पन्ने पर लग रहे होते हैं। ऐसे में यदि कोई अखबार इस संकल्प को लेकर शुरू किया जाए कि अखबार के मूल उत्तरदायित्वों से समझौता नहीं होगा तो वह अखबार रामचंद्र छत्रपति की 'पूरा सच' हो जाती है। एक अखबार जो 2000 में शुरू होती है और 2002 में ही राष्ट्रीय चर्चा में आ जाती है, उस अखबार की शुचिता और संकल्प का जज्बा देखा जा सकता है। 'पूरा सच' शुरू करने से पहले रामचन्द्र छत्रपति भी आम पत्रकारों की तरह भिन्न-भिन्न अखबारों में लिख रहे थे। सभी अखबारों ने छत्रपति को अपनी सीमाओं से अवगत करवा दिया था। उदारीकरण के युग में कर्तव्य के आगे सीमा रेखा डाल देने से ही भोग की सभी सीमाएं आपके लिए खोल दी जाती हैं। छत्रपति को यही चीज स्वीकार नहीं हुई और उन्होंने अपना खुद का समाचार पत्र शुरू किया। नैतिकता के बल पर लिखा पहला संपादकीय बतौर शपथ हर वक्त उनके साथ-साथ रहा। अन्यथा शपथ तो मंत्री भी लेते हैं लेकिन वह किसी और की लिखी हुई होती है। भीतर से जो शब्द छत्रपति के अंतस ने बाहर उड़ेले, वह थे 'मैं अपने अखबार 'पूरासच' के माध्यम से सच की सुगंध बिखेरने का वचन देता हूं।' पहला संपादकीय अक्सर अखबार के संपादक किसी मंजे हुए लेखक से लिखवाते हैं इस लिए वे शब्द कभी भी संपादक के इर्द-गिर्द नहीं रहते। शपथ पत्र के शब्द भी किसी और के लिखे होते हैं इसलिए वे भी कभी मंत्री के इर्द-गिर्द नहीं रहते लेकिन छत्रपति ने अपने अंतस में पाल-पलोस कर कागज पर फैलाया था उनसे वह कैसे भाग सकता था। छत्रपति इसी एक नैतिकता के कारण छत्रपति बना। एक आम पत्रकार जो लगातार समाज के दोगले आचरण को देखता था, उस पर कलम चलाता था और अखबार अपनी सीमाओं का हवाला देकर उसे हतोत्साहित कर देते थे वे ही लोग बाद में 'पूरा सच' के तेवर देखकर हैरान थे। वे ही लोग आज छत्रपति का नाम लेकर स्वयं का परिचय देते हैं कि वह हमारे अखबार का संवाददाता था, वह हमारे अखबार का कॉलम लिखता था, वह हमारा साथी था, वह हमारा सखा था, वगैरह-वगैरह।
आज 2011 में छत्रपति को अपनी देह से अलग हुए 9 बरस हो गए हैं। छत्रपति का सदेह रहते हुए जो अंतिम कार्य था, वह था देह से रूह की ओर ले जाने वाले गुरू के चेहरे पर से नकाब खींच लेने का कार्य। छत्रपति ने उस बाबा का नकाब खींचा जो स्वयं को भगवान श्री कृष्ण की तरह साध्वियों के समक्ष पेश करता और 16 कलाओं के रहस्यमर्मी की आड़ में देहलीला का खेल खेलता रहा। जिसके व्यापार (धर्म व्यापार) की मूल शर्त ही संयम है, वह ही संयम खो बैठे तो अखबार चुप कैसे बैठ सकते हैं। सभी खामोश अखबारों के बीच छत्रपति मुखर हुआ। आगे बढ़कर गुरू का नकाब खींच लिया। प्राणों से हाथ धोना पड़ा। लेकिन देह की अहमियत और देह के गौण होने का फर्क समझा गए। उस गुरू को भी, जो खुद कभी इस मर्म को समझे बिना लोगों को देह और रूह का अंतर बताता रहा। लेकिन देह के भंवर में भीतर तक फंसा वह धर्म गुरू फिर-फिर बेनकाब होता रहा। छत्रपति ने जिस नकाब को तार-तार कर डाला था बाबा ने उस नकाब पर हर तरह से पैबंद लगाने की कोशिश की। हर तरह से फिर वही नकाब ओढऩे का प्रयास किया। लेकिन नकाब पर पैबंद लगाने से वे पैबंद चेहरे पर साफ नजर आते हंै। नकाब लगाने वाले इस सच को जानते हैं। बाबा के नकाब में से उसका असली चेहरा दीखता रहा। और आज आलम यह है कि छत्रपति की ही तरह हर अखबार को बाबा के नकाब के नीचे का असली चेहरा एक्स-रे की तरह साफ नजर आता है। कुछ, जो व्यावसायिक पत्रकार हैं, उन्होंने इसे व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखा और कुछ जो थोड़ा बहुत पत्रकारिता के अपने धर्म के प्रति जवाबदेह हैं, उन्होंने छत्रपति के काम को आगे बढ़ाने का काम किया है। आज छत्रपति देह के बाद की यात्रा पर हैं जो सिर्फ शहीदों की किस्मत में होती है। छत्रपति देह से आगे शब्द की यात्रा पर लगातार गतिमान हैं और बाबा शब्द की यात्रा के पहले पड़ाव पर देह में ही उलझा है। छत्रपति के आगे बाबा बहुत बौना नजर आता है आज। सिद्धांतों, कर्तव्यों और अपने काम के साथ ईमानदारी और बेईमानी का यही फल है और यही हश्र भी।
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