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सच और झूठ के बीच कोई तीसरी चीज नहीं होती और मैं सच के साथ हूं : छत्रपति       www.poorasach.com      

Tuesday 22 November 2011

कौन बनेगा जस्टिस सिन्हा?

लेखराज ढोट
जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नहीं होता।
नामवर गज़लगो बशीर बद्र का यह शे'र सच को प्रभाषित करता है। दूसरा सच हम रोजाना हिंदुस्तानी अदालतों में हजारों-लाखों बार दोहराते हैं, 'जो कहूंगा, धर्म से सच कहूंगा, सच के सिवाय कुछ नहीं कहूंगा'।  अदालती ढांचे में सच के इस आयद (कसम) में ही खो जाती है आम भारतीय को सच मिलने की उम्मीद। और वह अदालतों से ही जूते घिसता-घिसता सीधा कब्र की राह हो लेता है। और तीसरा सच है शहीद छत्रपति का सच। 'सच और झूठ के बीच कोई तीसरी चीज़ नहीं होती और मैं सच के साथ हूं।' छत्रपति को दैहिक रूप से हमारे बीच से गए आज पूरे 9 बरस हो गए। लेकिन छत्रपति के शब्द न मरे थे, न मरेंगे क्योंकि विचार कभी मरता नहीं। अगर सच या विचार की मौत होती तो आज न तो कोई मन्सूर और उसके जहर प्याले को जान पाता और न ही धरती के गोल होने और सूरज के गिर्द घूमने वाला गैलीलियो का सच हमारे सामने होता। भगत सिंह का यह विचार 'आदमी और आदमी में से ईश्वर की दीवार हटा दो तो आदमी-आदमी ही रहेगा' आज भी जिंदा है। लिहाजा फिर शहीद छत्रपति का विचार क्यों न जिंदा रहे। छत्रपति आज छत्रपतिवाद बनकर जिंदा है।
छत्रपति की शहादत के मौके पर इस बात पर विचार करना जरूरी है कि भारतीय न्यायालयों का सच क्या है? चूंकि छत्रपति के कातिलों को अभी सजा मिलना बाकी है। अभी छत्रपति के मुख्य कातिल, इस षड्यंत्र के सूत्रधार की गर्दन तक पहुंचना है कानूनी शिकंजे को। सबसे अहम प्रश्न, करीब-करीब हमेशा की तरह अब तक इस मामले में भी कानून का जो प्रदर्शन रहा है, उसने न केवल इस केस के पीडि़तों को ही निराश किया है, बल्कि करोड़ों भारतीयों के विश्वास को भी ठेस पहुंचाई है। आखिर कोई न्याय प्रणाली पर विश्वास करे भी तो कैसे? जुर्म इतने संगीन लेकिन फिर भी मुख्य अभियुक्त डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत सिंह को नियमित जमानत? 9 साल का लंबा समय और केस अभी भी गवाहियों के पचड़े से नहीं निकला! अग्रिम जमानत के वक्त पंजाब एवं हरियाणा के तत्कालीन चीफ जस्टिस साहब ने अपने साथियों को ऑफ दॅ रिकॉर्ड कहा कि हमारी मजबूरी थी डेरा प्रमुख को जमानत देना! आखिर क्या थी मजबूरी? क्यों एक गुनहगार बड़ा साबित हुआ? क्यों बौनी रह गई कानूनी धाराएं? पैसा, धर्मान्धता और राजनीतिक दखल, क्या यही रहे कारण?
धर्म जब धंधा हो जाता है और धंधे का कोई धर्म नहीं होता, तब छत्रपति जैसे लोगों की शहादत कोई ज्यादा हैरानी वाली बात नहीं। लेकिन जब धर्म के इस धंधे की भागीदार शासन व प्रशासन की मशीनरी बन जाए तब आम व्यक्ति के लिए संविधान के अनुच्छेद 14, जीने के अधिकार के कोई मायने नहीं रहते।
न्यायाधीश एस.एन. धींगड़ा ने कहा था, 'दो तरह का न्याय है भारतीय न्यायालयों में। अमीर के लिए अलग। गरीब को हांकने वाला डण्डा अलग'। फिल्म अंधा कानून में कहा गया है, 'कानून अंधा होता है। अंधेपन के कारण कुछ देख नहीं पाता।' लेकिन व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई कहते हैं, 'कानून अंधा नहीं बल्कि भैंगा होता है, गरीब को लगता है कि तेरी तरफ देख रहा है लेकिन वह देख रहा होता है सामथ्र्यवान की तरफ।'
इनमें से न्यायाधीश एस.एन. धींगड़ा व व्यंग्यकार परसाई की पीड़ा एक जैसी लगती है। 'पूरा सच' के पाठक, जो किसी भी तरह से कानून की जानकारी रखते हैं, उन्हें मैं बता दूं कि छत्रपति के केस में डेरा प्रमुख को अग्रिम जमानत देते वक्त उच्च न्यायालय के जस्टिस एल.एन. मित्तल ने लिखा कि 'केस को गुण-दोष के आधार पर अंबाला की सीबीआई कोर्ट देखेगी।' नियमित जमानत के वक्त इस चीज को देखा जाना था, ऐसा कानून कहता है। लेकिन अंबाला कोर्ट के उस वक्त के जज आर.के. सैनी ने अपने आदेश में मात्र इतना भर लिखा कि 'गुण-दोष तो पहले ही उच्च न्यायालय देख चुका है।' मुझे नहीं लगता कि आज तक नियमित जमानत के समय भी दोषी की हाजिरी अदालत में न लगी हो। पर डेरा प्रमुख की नियमित जमानत पर तीन दिन तक सुनवाई चली लेकिन तब गुरमीत सिंह का हाजिर रहना जरूरी नहीं समझा गया। और अब भी अगर कोई जज ये कहे कि मुझ पर बहुत ज्यादा दबाव है, कोई आने वाला ही देखेगा तो अनुमान लगाइए कि आखिर कोई विश्वास करे भी किस पर। आखिर यूं ही तो नहीं बन जाता कोई जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा (इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द करने वाले)।
कहते हैं वक्त की हर शै गुलाम है। वक्त हिसाब मांगता है। जिनके हाथों भगवान (अगर कहीं है तो) ने कलम से न्याय करने जैसी अहम ताकत दी है, अगर वे आज महज मोम के पुतले ही साबित होते हैं तो उन पर ये इल्जाम हमेशा रहेगा कि उन्होंने क्यों आखिर तिरंगे झंडे की शक्ल कापे या कुल्हाड़े जैसी बना दी। आज जिन हाथों में न्याय की कलम है, उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि यही कलम समाज को न केवल दर्पण ही दिखाती है बल्कि हथौड़े की शक्ल अख्तियार करके इसी दर्पण की छाती भी तोडऩा जानती है। जब हमें कलम से न्याय नहीं मिलता तो हम भारतीय आखिरी सहारे के रूप में कहते हैं, 'चलो भगवान तो देखता है, इसे भगवान सजा देगा।' लेकिन याद रहे, इसी भगवान के बारे में बाबा नानक ने यह कहा, ' ऐती मार पए कुरलाणे तैं की दर्द न आया'। यानी तू कैसा भगवान है जो चुपचाप इतने जुल्म देख लेता है।
''सुनिश्चित हो न्याय धरती पर ही मिल जाए।"

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