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Friday, 14 November 2014

पेट के लिए पिस रहे बच्चे

बाल दिवस : इन बच्चों को नहीं पता कौन हैं चाचा नेहरू

सिरसा। बाल दिवस, यानी चाचा नेहरू का जन्मदिन। इस दिन देशभर में बच्चों के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। बच्चे इन कार्यक्रमों में शामिल होकर पूरे दिन मौज-मस्ती करते हैं। वहीं कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिन्हें यह मालूम ही नहीं कि आज बाल दिवस है। वे पेट पालने के लिए रोजमर्रा की तरह पिसते रहते हैं। काम करते हैं, पैसा उगाहते हैं और अपना व परिवार का पोषण करते हैं। 
नौनिहालों का बचपन एवं भविष्य संवारने के सभी दावे तो खोखले साबित हो रहे हैं। वहीं बाल दिवस पर प्रश्र चिन्ह लगा रही बाल मजदूरी फल फूल रही है तथा चाचा नेहरू के प्यारे आजादी के  लगभग 68 वर्षों बाद भी बच्चे मजदूरी करने को विवश हैं। पढऩे-लिखने की उम्र में अपने पेट के लिए मजदूरी कर रहे इन बच्चों को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाल मजदूरी उन्मूलन कार्यक्रम कितना सफल रहा है। 
1986 में बना था बाल मजदूरी निषेध अधिनियम:बाल मजदूरी निषेध अधिनियम दिसंबर 1986 में अस्तित्व में आया था और देश भर में इससे संबंधित पोस्टरों व अन्य प्रचार सामग्री बंटवाकर इस अधिनियम के तहत बाल मजदूरी की पूरी तरह रोकथाम के निर्देश भी दिए गए थे। पिछले 28 वर्षों से कछुए की चाल से चल रहा यह अभियान अपनी मंद गति के कारण निंदा का जब भी पात्र बना तब-तब इसे युद्धस्तर पर भी चलाया गया लेकिन परिणाम अब भी ढाक के वही तीन पात। स्थिति सुधरने के बजाय बद से बदतर होती जा रही है।
क्या है बाल मजदूरी निषेध अधीनियम:बाल मजदूरी अधिनियम के अंतर्गत 14 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चे किसी भी दुकान व औद्योगिक संस्थानों में काम नहीं कर सकते। अगर 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे कहीं भी काम करते पाए जाते हैं तो उनके मालिकों पर 20 हजार रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। हालांकि प्रदेश में कई बार श्रम विभाग की ओर से दुकानों व औद्योगिक संस्थानों का निरीक्षण किया गया है लेकिन ऐसे अभियान की निरंतरता के अभाव में बाल मजदूरी खत्म नहीं हो पाई है।
जिला में बाल मजदूरों की संख्या कम नहीं है। यहां दुकानों, ढाबों, ओद्योगिक क्षेत्र आदि में काम करने वाले 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे मुख्यत: उन परिवारों के हैं, जो बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के पिछड़े क्षेत्रों से यहां आकर बसे हैं। अपने व परिवार के गुजारे के लिए ये बच्चे मजदूरी करने को बेबस हैं। ऐसे बच्चों से बात करें तो पता लगता है कि उनका भी मन भी अन्य बच्चों की तरह पढऩे-लिखने और बचपन का आनंद उठाने को करता है लेकिन ऐसा करने पर वे अपने परिवार के प्रति बाल्यावस्था में ही सौंप दी गई जिम्मेवारी का निर्वहन नहीं कर पाएंगे। अधिकतर चाय की दुकानों व ढाबों पर काम करने वाले बच्चों की ऐसी ही कहानियां है। ऐसी जगहों पर काम करने वाले अधिकतर बच्चों की उम्र 14 वर्ष से कम ही होती है और उनके माता-पिता स्वयं उन्हें काम पर लगाकर आते हैं। इसके पीछे उनका तर्क यह होता है कि अगर बच्चे काम करना छोड़ देंगे तो घर का खर्च निकाल पाना मुश्किल हो जाएगा। कारण चाहे जो भी हो लेकिन बाल मजदूरी का शिकार इन बच्चों की समस्या बढ़ती ही जा रहा है। इनके उद्धार के लिए बनी योजनाएं कभी भी सुदृढ़ता से कागजों से बाहर नहीं निकल पाई हैं और इन योजनाओं से अनभिज्ञ बच्चों को कब तक इनका फायदा मिलेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल ये बच्चे अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं।
क्या कहते है एसडीएम:एसडीएम धीरेंद्र खडगटा ने कहा कि बाल मजदूरी पर शिकंजा कसने के लिए अनेक विभागों के अधिकारियों, कर्मचारियों से बैठक कर निर्णय लिया गया है कि आज बाल दिवस से ही ऐसे उद्योगों, ईंट भ_ों, होटलों, ढाबों, थोक दुकानों को चिन्हित करने का कार्य शुरु किया जा रहा है जहां 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखा हुआ है। ऐसे प्रतिष्ठानों/व्यक्तियों के खिलाफ बाल शोषण अधीनियम के तहत कार्यवाही की जाएगी वहीं बाल मजदूरों को स्कूल भेजने की व्यवस्था भी की जाएगी।

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